उन्हें पढ़ाई के लिए विदेश जाने की जरूरत क्या थी? क्या वे अच्छी मेडिकल सर्विस दे पाएंगे? जानिए जवाब इन 5-प्वाइंट में , पढ़ें पूरी खबर - गुरुआस्था न्यूज़


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 उन्हें पढ़ाई के लिए विदेश जाने की जरूरत क्या थी? क्या वे अच्छी मेडिकल सर्विस दे पाएंगे? जानिए जवाब इन 5-प्वाइंट में  

 रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से देश में उन छात्र-छात्राओं चर्चा लगातार हो रही है, जो विदेश से मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं. यूक्रेन में छिड़ी भीषण लड़ाई के बीच घिरे इन भारतीय युवाओं को लेकर इधर भारत में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. जैसे- इन्हें आखिर वहां पढ़ने जाने की जरूरत क्या थी? यह भी कि जोयहां 

मेडिकल की परीक्षा में वे पास नहीं हो पाए, वे दूसरे देश से डिग्री लेने के बाद भारत में अच्छी अच्छी मेडिकल सर्विस दे ही पाएंगे, इसकी क्या गारंटी है? और इसी तरह के तमाम सवाल. इन स्थितियों और सवालों के इर्द-गिर्द जिज्ञासा के पहलू ये भी हो सकते हैं कि आखिर से दूसरे देशों से मेडिकल की पढ़ाई  करने वाले भारतीय छात्र-छात्राएं हैं कितने? किन-किन देशों में पढ़ रहे हैं? भारत में लौटने पर उनके लिए किस तरह की चुनौतियां होती हैं? आदि. 

इन्हीं सब पर एक नजर डालते हैं, बस 5-प्वाइंट में. भारत में चिकित्सा शिक्षा और सेवा की क्या है स्थिति

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, आदर्श स्थिति में प्रति 1000 व्यक्तियों पर 1 डॉक्टर होना चाहिए. इस हिसाब से 138 करोड़ की भारतीय आबादी पर लगभग 1.38 करोड़ डॉक्टरों की जरूरत है. जबकि नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (NHP) के आंकड़ों के अनुसार देश में 2021 तक महज 12 लाख रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनर्स (RMP) थे. देश में इस वक्त करीब 83,000 एमबीबीएस (MBBS) की सीटें उपलब्ध हैं. इनमें दाखिले के लिए 2021 में 16 लाख से अधिक परीक्षार्थियों ने प्रवेश परीक्षा दी थी. जहां तक फीस का सवाल है तो भारत में किसी निजी मेडिकल कॉलेज में 4.5 साल की पढ़ाई के दौरान 50 लाख से 1.5 करोड़ रुपए तक खर्च हो जाते हैं. वहीं यूक्रेन जैसे देशों में यह खर्च महज 15-20 लाख पड़ता है.

महज 5 साल में 3 गुना बढ़ गए विदेश से पढ़ने वाले

आंकड़े बताते हैं कि 2015 से 2020 के बीच 5 साल में ही 3 गुना के करीब ऐसे छात्र-छात्राओं की संख्या बढ़ी है, जिन्होंने विदेश से मेडिकल की डिग्री ली. इस किस्म के छात्र-छात्राओं को विदेश से डिग्री लेकर भारत लौटने के बाद यहां एक परीक्षा देनी होती है. इसे फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स एक्जामिनेशन (FMGE) देना होता है. यह परीक्षा साल में 2 बार होती है. इसे पास करने के लिए 3 मौके मिलते हैं. इसके बाद ही विदेश से मेडिकल की डिग्री लेने वाले यहां अपनी प्रैक्टिस कर सकते हैं या उन्हें चिकित्सा के पेशे में कहीं कोई नौकरी मिल सकती है. परीक्षा राष्ट्रीय परीक्षा मंडल (NBE) लेता है, जिसके आंकड़ों के अनुसार, 2015 में एफएमजीई 12,116 परीक्षार्थी बैठे थे. जबकि 2020 में उनकी संख्या बढ़कर 35,774 हो गई. दिलचस्प बात ये है कि इसी अवधि में देश के मेडिकल कॉलेजों में महज 30,000 सीटें ही बढ़ीं.

किन-किन देशों में पढ़ने जाते हैं भारतीय छात्र-छात्राएं

रूस और यूक्रेन का युद्ध  छिड़ा तो मालूम चला कि वहां करीब 20,000 भारतीय हैं. इनमें से अधिकांश वे हैं, जो सस्ती चिकित्सा शिक्षा लेने के लिए वहां गए और अलग-अलग स्तरों पर अभी पढ़ रहे हैं. हालांकि यूक्रेन अकेला देश नहीं है, जहां भारतीय छात्र-छात्राएं बड़ी संख्या में पढ़ रहे हैं. चीन, रूस, किर्गिस्तान, फिलिपींस और कजाखस्तान जैसे देश भी हैं, जहां भारतीय छात्र-छात्राएं मेडिकल, इंजीनियरिंग की सस्ती पढ़ाई के लिए जाते हैं. एनबीई (NBE) के ही आंकड़े बताते हैं कि 2020 में चीन के शिक्षण संस्थानों से डिग्री लेकर आने वाले करीब 12,680 छात्र-छात्राएं एफएमजीई (FMGE) में बैठे थे. जबकि रूस से पढ़कर आने वाले 4,258, यूक्रेन से 4,153, किर्गिस्तान से 4,156, फिलिपींस से 3,142 और कजाखस्तान से आए 2,311 लोगों ने यह परीक्षा दी थी.

बाहर से पढ़कर आने वालों में 16% से कम पास होते हैं

हालांकि एनबीई के आंकड़ों से ही एक दिलचस्प जानकारी ये भी सामने आती है कि विदेश से डिग्री लेने वाले अधिकांश छात्र-छात्राएं भारत में फिर भी अयोग्य सिद्ध होते हैं. इसका प्रमाण ये है कि बीते 5 सालों में विदेश से पढ़कर आए औसतन महज 15.82% छात्र-छात्राएं ही एफएमजीई से पास हो सके. साल 2020 में चीन से पढ़कर आए 13%, यूक्रेन से लौटे 16% परीक्षार्थी ही एफएमजीई पास कर सके. अन्य देशों का भी लगभग यही हाल है. बस, फिलिपींस की स्थिति कुछ बेहतर है. वहां से पढ़कर आने वाले करीब 50.2% छात्र-छात्राओं ने 2019 में 33.7% ने 2020 में एफएमजीई पास की है. इसीलिए पढ़ाई के लिए फिलिपींस जाने वालों की संख्या भी 2015 से 10 गुना तक बढ़ी है.

तो फिर विशेषज्ञ क्या कहते हैं इस बारे में

डॉक्टर अरुणा वाणीकर, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) के अंडरग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन बोर्ड की अध्यक्ष हैं. वे ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत के दौरान कहती हैं, ‘विदेश से मेडिकल की डिग्री लेने वालों की हालत भी कोई बहुत अच्छी नहीं है. एफएमजीई पास करने वालों के आंकड़े इसका प्रमाण हैं. इसलिए बेहतर यह होगा कि हम अपने देश के भीतर ही चिकित्सा शिक्षा पर होने वाले अनाप-शनाप खर्च को नियमित करें. यहां सीटें बढ़ाएं. संस्थानों में मूलभूत सुविधाएं बेहतर करें. ताकि बच्चों को कहीं और जाकर पढ़ना ही न पड़े.’ पूर्व स्वास्थ्य सचिव सुजाता राव भी इसी तरह की बात करती हैं.

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